जोधपुर के रविंद्र काबरा ने अपने घर को ही बना दिया फूलों की घाटी

फूलों की घाटी, जी हां ! चौंकिए मत, हम फूलों की घाटी ही बात कर रहे हैं वो भी कश्मीर या हिमाचल के किसी पहाड़ी इलाके में नहीं बल्कि जोधपुर के मेड़ती गेट स्थित कुमाचन हाउस में ! और ये कमाल किया है जोधपुर के ही एक 69 वर्षीय शख्स रविंद्र काबरा ने। जिनकी लगन और पौधों के प्रति अगाध प्रेम के कारण उन्होंने अपने घर को ही एक ऐसा रूप दिया कि वो अब किसी फूलों की घाटी से कम नजर नहीं आती।
भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में नाम कमा चुके रविंद्र काबरा के घर को जोधपुर का वैली ऑफ फ्लॉवर्स कहा जाता है। यूं तो राजस्थान के जोधपुर में पर्यटकों को देखने लायक बहुत कुछ है लेकिन जो भी वैली ऑफ फ्लॉवर्स एक बार देखता है मंत्र मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। देश विदेश के अलग अलग प्रजातियों के 11000 से भी अधिक पौधों के द्वारा बनाई गई गोकुल द वैली ऑफ फ्लॉवर्स आज पर्यटकों के बीच में खासी लोकप्रिय है। यहां रंग बिरंगे खुशबू वाले पौधों के साथ साथ कई तरह के हर्बल पौधों की विभिन्न प्रजातियां देखकर आप हैरत में पड़ जाएंगे। देश विदेश से लोग जोधपुर की इस गोकुल द वैली आॅफ फ्लॉवर्स को देखने आते रहते हैं।

सबसे मजे की बात यह है कि इतने बड़ी गोकुल द वैली ऑफ फ्लॉवर्स को रविंद्र काबरा अकेले संभालते हैं। इस बगीचे के पेड़ पौधों की देखभाल वो किसी मजबूरी वश नहीं करते वरन बागवानी उनका शौक ही नहीं जुनून है। रविंद्र काबरा बताते हैं कि वे पिछले 56 सालों से बागवानी कर रहे हैं। मात्र दस साल की उम्र में ही वे अपने दादा गोकुलचंद्र काबरा के साथ गार्डन में जाया करते थे। उसी दौरान उन्होंने गार्डनिंग करना सीखा। इसी कारण अपने दादा जी की याद में रविंद्र काबरा ने मेहनत से तैयार किए इस गार्डन का नाम गोकुल द वैली ऑफ फ्लॉवर्स रखा।

रविंद्र काबरा बताते हैं कि मेरे जीवन की कहानी भी कुछ अजीब रही। मैंने कई अलग अलग तरह के कार्यों की शुरूआत की और सफलता पूर्वक किए भी, लेकिन बचपन में दादा जी के साथ रहकर गार्डेनिंग का जो शौक लगा वो मेरे अंदर कहीं ऐसे घर कर गया कि आखिर में मुझे लगा कि मैं सिर्फ और सिर्फ पेड़, पौधों, फूल, पत्तियों की सेवा के लिए ही बना हूं। जिसका नतीजा है ये आज गोकुल द वैली ऑफ फ्लॉवर्स।

अपने बीते दिनों को याद करते हुए रविंद्र काबरा बताते हैं कि स्कूलिंग के बाद वे ग्रेजुएशन करने के लिए अहमदाबाद चले गए। 1970 से 78 तक अहमदाबाद में रहने के दौरान भी उन्होंने अपने टेरेस पर गार्डन बना रखा था जिसके सहारे वे अपने बागवानी के शौक को जिंदा रखते थे। 1979 में वापस जोधपुर लौटने पर उनकी शादी हो गई और उन्होंने व्यापार करना शुरू किया। काबरा बताते हैं कि साल 1980 में उन्होंने स्टेनलेस स्टील की चादर का कच्चा माल बनाने की फैक्ट्री लगाई। बाद में 1984 में जोधपुर का पहला आॅटोमेटिक ब्रेड बनाने का प्लांट लगाया, जिसमें शुरू से अंत तक कहीं भी डबलरोटी बनने के दौरान हाथ नहीं लगाया जाता था। 1992 में रविंद्र ने अपनी दोनों फैक्ट्रियां बंद करके इलेक्ट्रॉनिक्स का शोरूम खोला और इसे भी 11 साल सफलतापूर्वक चलकाकर बंद कर दिया। इन सब कारोबार के दौरान रविंद्र ने काफी मुनाफा तो कमाया लेकिन बागवानी का उनका जुनून कम होने के बजाय दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने अपनी फैक्ट्रियों में भी बड़े बड़े गार्डन विकसित किए। बाद में साल 2002 में रविंद्र पूरी तरह बागवान बन गए।

आपको जानकर हैरानी होगी कि अपनी धुन के पक्के रविंद्र काबरा ने अपने बगीचे में देश विदेश की लगभग सभी प्रजातियों के पौधों को उगाने में सफलता हासिल की है। जोधुपर के गर्म तापमान में उन्होंने ऐसे ऐसे फूल के पौधे उगाएं हैं जो इस आबोहबा में उगना किसी अचम्भे से कम नहीं है। उनके बगीचे में 25 प्रकार के कमल, 250 प्रजातियों के अंडेनियम, 250 प्रजातियों के गुलाब, 50 प्रजातियों के बोगनवेलिया सहित 8000 गमलों में 400 से भी ज्यादा प्रकार के पौधे हैं।

काबरा बताते हैं, ट्यूलिप हॉलेंड में होता है। इस फूल को देखने लोग हॉलेंड जाते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी, पर यह यहां खिल रहे हैं। हाईड्रेंजिया भी फूल की एक किस्म है, जो केवल हिल स्टेशनों पर ही उगती है। अजेलिया एक प्रजाति है, जो हिल स्टेशनों या ठंडे स्थानों पर ही हो सकती है। हेलिकोनियाज, ऐसा प्लांट है जो कोस्टल एरिया में ही होता है। आर्किड, डेजर्ट में होता है, किसी को कहेंगे तो यकीन ही नहीं करेगा। भीषण गर्मी वाले शहर में मुझे स्ट्राबेरी पनपाने में भी कामयाबी मिली।

रवींद्र को इन पेड़-पौधों की वजह से जीवन में जो सफलताएं मिली हैं, उनका वर्णन मुश्किल है। इन सभी पेड़ पौधों, फूल पत्तियों से अपने आत्मीय लगाव को ही वे अपनी कामयाबी की सीढ़ी मानते हैं। वे इन 8000 गमलों में बसे पौधों को अपनी संतान मानते हैं। उनका पौधों से ऐसा गजब का रिश्ता बन गया है कि इनके बगैर वे नहीं रह सकते।

रविंद्र काबरा अपनी जिंदगी का सबसे यादगार साल 2003 को बताते हैं जब उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज के लिए प्रोजेक्ट किया। इसके बाद दिल्ली में 400 एकड़ के अंसल ग्रुप के चार प्रोजेक्ट, पार्श्वनाथ ग्रुप, ताज ग्रुप, मिलिट्री, जोधपुर, राजस्थान हाईकोर्ट के 100 एकड़ में नए कैंपस का लैंडस्केप, उमेद भवन पैलेस होटल एवं ताज ग्रुप आॅफ होटल सहित कई शैक्षणिक संस्थानों के लिए भी बगीचे विकसित किए। उन्होंने अजमेर, कोटा, दिल्ली, अमृतसर, मुंबई सहित कई जगहों पर गार्डन तैयार किए हैं।

रविंद्र काबरा अपनी सफलता का सारा श्रेय अपने पेड़ पौधों को देते हैं। वे कहते हैं के पेड़ पौधों को मैं अपनी संतान मानता हूं। अब मेरे और इनके बीच एक ऐसा रिश्ता बन गया है कि न ये मेरे बगैर रह सकते हैं और न मैं इनके बगैर। यदि मुझे किसी काम से जोधपुर से बाहर भी जाना पड़ जाए तो मुझे इन पेड़ पौधों से कई बार आज्ञा लेनी पड़ती है और वापस आने पर माफी भी मांगनी पड़ती है। ये मुझ से नाराज भी होते हैं और क्षमा भी करते हैं।

रविंद्र बताते हैं कि पेड़ पौधों को भी तारीफ पंसद होती है। आपने देखा होगा कि हम दो बच्चों में से किसी एक को अधिक प्यार करते हैं तो दूसरा नाराज हो जाता है। यह भी ऐसा ही करते हैं, ईर्ष्या इनमें भी होती है, तारीफ इनको भी प्रिय होती है। पूरे देश सहित लोग विदेशों से भी मेरे बगीचे को निहारने आते हैं, जब वे इनकी तारीफ करते हैं तो अगले दिन मुझे ऐसा लगता है कि जैसे आज इनकी मुस्कुराहट अलग ही है। यह परिवर्तन आप तब ही महसूस कर पाते हैं, जब इनके साथ रोज 4-5 घंटे व्यतीत करते हैं।

एक बागबान होने के नाते वो लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित भी करते हैं। रविंद्र कहते हैं, ” मैं सबसे कहता हूं कि भले आपका घर छोटा हो, आप फ्लैट में रहते हों, लेकिन 10-15 गमले अवश्य रखिए। आपाधापी की जिंदगी के बीच एक नियम बनाइये कि हर शनिवार-रविवार को आप खुद उनको पानी पिलाएंगे और अपनी पत्नी के साथ बैठकर वहीं चाय पिएंगे। उस जगह गुजारे यह 20 मिनट एक महीने में आपके रिश्तों को एक नया मोड़ दे देंगे। जिसकी कल्पना भी आपने नहीं की होगी। आप समझ जाएंगे कि पर्यावरण क्या कर सकता है?

8000 गमलों का मैं इकलौता माली रविंद्र के उपवन में 8000 गमले हैं और वो बिना किसी हेल्पर के इनका रोज ध्यान रखते हैं। रविंद्र कहते हैं, “इनके साथ हुए जुड़ाव की वजह से मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे किसी और की जरूरत है। आज मैं 69 साल हो गया हूं और रोजाना 100 गमले इधर से उधर करता हूं पर रत्ती-भर थकान महसूस नहीं होती।” वो आगे कहते हैं, मेरी मां कहती हैं कि अब मेरी उम्र हो रही है, इस तरह के काम न किया करूं। मेरा जवाब होता है कि इस काम की वजह से ही मैं जवान हूं। मैं खुशनसीब हूं कि ईश्वर ने मुझे इस तरह का कार्य करने का मौका दिया।

अभी हाल में रवद्रिं काबरा ने अपनी ऑटोबायोग्रॉफी गार्डन ऑफ होप लिखी है। जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे प्रकृति से जुड़ने के बाद उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आए। आज रविंद्र काबरा एक जाना माना नाम है। देश विदेश के हजारों लोग आज उन्हें सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं। आज रविंद्र काबरा बागवानी की दुनिया में एक जगमगाता सितारा बन गए हैं।