Litchi Farming: लीची है लाजवाब, इसकी बागवानी कर कमाएं बढ़िया लाभ

लीची की बागवानी का सही समय मॉनसून के तुरंत बाद अगस्त-सितंबर को माना जाता है। अगर आप इस सीजन इसकी बागवानी करना चाहते हैं तो इस लेख से जानिए इसकी उन्नत किस्मों और इसके पौधरोपण की तैयारी के बारे में…

रवि प्रकाश मौर्य

नई दिल्ली। शायद ही कोई ऐसा हो, जो लीची (Litchi) के लाजवाब स्वाद से न परिचित हो। लीची को तो देखकर ही हर किसी के मुंह में पानी आ जाता है। इसके बावजूद लोगों को बागान या गार्डेन में इसके पेड़ कम ही दिखते हैं, ज्यादातर लोग इस फल को बाजार से ही खरीदते हैं। अगर आप बागवान हैं या नई बागवानी के इच्छुक हैं या फिर अपने गार्डेन में कोई नया पौधा लगाना चाहते हैं तो इस मानसून सीजन में लीची लगाने की सोच सकते हैं। कुछ समय बाद जब इसमें फल लगेंगे तो निःसन्देह आपको बहुत खुशी होगी और आप इससे बढ़िया मुनाफा भी कमा सकते हैं।

बता दें कि पूरे विश्व में चीन के बाद भारत लीची उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर है। लीची का फल लाल छिलकेदार होता है, जिसमें सफेद रंग का गूदा होता है, और जो स्वाद में बहुत मीठा होता है। लीची के फलों का उपयोग सीधे तौर पर खाने के अलावा अनेक प्रकार की चीजों को बनाने के लिए भी करते हैं। इसके फलों से जैम, जेली, नेक्टर, शरबत, कार्बोनेटेड पेय आदि को बनाया जाता है।

गुणों की बात करें तो लीची में विटामिन बी, सी, मैग्नीशियम, कैल्शियम और कार्बोहाइड्रेट की उचित मात्रा पाई जाती है इसलिए लीची का सेवन मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभप्रद माना गया है। गर्मी के दिनों में इसकी बहुत मांग रहती है। इसकी बागवानी का सही समय मॉनसून के तुरंत बाद अगस्त-सितंबर को माना जाता है। आइये जानते हैं इसकी उन्नत किस्मों और इसके पौधरोपण की तैयारी के बारे में…

लीची की उन्नत किस्में
शाही लीची: लीची की यह किस्म देश की एक व्यावसायिक और अगेती किस्म है, जो दिन-प्रतिदिन और लोकप्रिय ही हो रही है। इस किस्म के फल गोल और गहरे लाल रंग के होते हैं। बागवानों द्वारा इस किस्म को सबसे ज्यादा इसलिए पसंद किया जाता है क्योंकि इसमें गूदे की मात्रा अधिक होती है, और इसके पौधों पर लगने वाले फल मई माह में ही तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं, जब इसकी बाजार में सबसे ज्यादा डिमांड होती है। इस किस्म की एक और बड़ी खासियत यह है कि इसके पूर्ण विकसित प्रत्येक पौधे से तकरीबन 100 किलो तक फल प्राप्त हो जाता है। यही नहीं, इस किस्म की मांग देश के साथ ही विदेशों में भी काफी अधिक होती है।

अर्ली बेदाना: शाही लीची की तरह यह भी एक अगेती किस्म है। इस किस्म को उत्तर प्रदेश एवं पंजाब के लिए उत्तम माना जाता है। खास बात यह है कि इस पर नियमित रूप से फल लगते हैं। इसके फल मई के प्रथम पक्ष में ही पकने लगते हैं। अगेती किस्म होने के नाते लीची की आवक की शुरुआत में बढ़िया मुनाफा कमाया जा सकता है। इसके पेड़ पूरी तरह से तैयार हो जाने पर 20 से 25 वर्ष तक बढ़िया पैदावार देते हैं।
मुजफ्फरपुर लीची: इस किस्म के बारे में बताने से पहले आपको ये जानकारी दे दें कि बिहार का मुजफ्फरपुर जिला देश में लीची उत्पादन के मामले में सबसे आगे है। इससे आप स्वतः ही समझ गए होंगे कि उत्पादन के लिहाज से ये किस्म बहुत ही खास होगी, तभी मुजफ्फरपुर जिला आगे है। इस किस्म की विशेषता ये है कि इसके फल नुकीले होते हैं, और इसके फल का वजन 22 से 25 ग्राम तक होता है। इसे ‘लेट लार्ज रेड’ किस्म के नाम से भी जाना जाता है। अगर आप उत्तरी बिहार क्षेत्र के हैं तो आपके लिए इस किस्म का चयन सर्वोत्तम है।

रोज सेन्टेड: बिहार के मुजफ्फरपुर और उत्तराखंड क्षेत्र के लिए ये किस्म उत्तम मानी जाती है। इस अगेती किस्म को उच्च गुणवत्ता वाले फल के लिए जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यह विशिष्ट गुलाब की सुगंध के लिए भी प्रसिध्द है इसलिए इसे ‘रोज सेन्टेड’ कहा जाता है। यह मध्य-मौसम की किस्म है, जो जून के पहले सप्ताह में पकनी प्रारंभ होती है। इसकी औसत उपज लगभग 80-90 किलो प्रति पेड़ है।
कलकतिया लीची: यह किस्म अधिक देरी से पककर तैयार होती है। इसके पौधों पर लगने वाले फल जुलाई के महीने में तुड़ाई के लिए तैयार होते हैं। इसका पूर्ण विकसित पेड़ 20 वर्षों तक पैदावार देता है। इसके फलों का स्वाद मीठा होता है, लेकिन इसमें से निकलने वाला बीज अधिक बड़ा होता है। इस किस्म के पौधे को लगाने का फायदा यह है कि लीची की आवक के अंतिम समय में फल मिलता है, जिससे बागवान बढ़िया लाभ कमा सकते हैं।

चाइना लीची: ये लीची की एक पछेती उन्नत किस्म है। इसके फलों का रंग गहरा लाल और आकार मध्यम होता है। फलों में गूदे की मात्रा अधिक पाई जाती है। प्रत्येक पौधे से 80 से 90 किलोग्राम तक उपज प्राप्त हो जाती है।

स्वर्ण रूपा: इस किस्म को भारत में कई स्थानों पर उगाया जाता है। इस किस्म के फल का आकार सामान्य होता है, जिसके अंदर अधिक मात्रा में गूदा पाया जाता है। यह फल देखने में गहरे गुलाबी रंग का होता है। इसका पूर्ण विकसित पेड़ 100 किलो तक का उत्पादन प्रति वर्ष दे देता है।

देहरादून: यह एक देशी किस्म है, जिसे देहरादून में अधिक उगाया जाता है। इसमें निकलने वाले फल अधिक रसीले होते हैं। इसका पौधा सामान्य आकार का होता है, जो जून के महीने में पककर तैयार हो जाता है।

सीडलेस लेट: यह किस्म पूरी तरह से बीज रहित नहीं होती है, परंतु इसके बीज झुर्रीदार एवं छोटे होते हैं। अधिक गर्म क्षेत्रों में भी इसकी सफलतापूर्वक बागवानी की जा सकती है, बशर्ते कि वहां तेज गर्म हवाओं से सुरक्षा और प्रचुर सिंचाई जल की व्यवस्था हो। यह पछेती किस्म है। इस किस्म के फल प्राय: जून के तीसरे सप्ताह में पकते हैं, और इसमें औसत उपज 80-100 किलो प्रति पेड़ मिलती है। इसके फल आकार में मध्यम से लेकर बड़े, शंक्वाकार और पकने पर गहरी काली-भूरी गुलिकाओं से युक्त सिंदूरी से लेकर किरमिजी रंग के होते हैं।

उपयुक्त जलवायु एवं मिट्टी
लीची की बागवानी के लिए आर्द्र जलवायु उपयुक्त है। वर्षा की कमी में भी आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में इसकी बागवानी की जा सकती है। लीची विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है, परंतु दोमट अथवा बलुवाही दोमट मिट्टी, जिसका जलस्तर 2 से 3 मीटर नीचे हो, सबसे उपयुक्त है। लीची के लिए भूमि काफी उपजाऊ, गहरी एवं उत्तम जल निकास वाली होनी चाहिए। इसके लिए हल्की क्षारीय एवं उदासीन मिट्टी अधिक उपयुक्त समझी जाती है।

कैसे लगाएं बागान?
सबसे पहले जमीन का चुनाव कर दो-तीन बार जुताई कर समतल कर दें। लीची का बागान वर्गाकार पद्धति में लगायें अर्थात वृक्षों की कतारों तथा हर कतार में दो वृक्षों के बीच की दूरी बराबर हो। गड्ढे 9 या 10 मीटर की दूरी पर 90 सेमी व्यास एवं 90 सेमी गहराई वाले रखें। इन गड्ढों को कुछ समय के लिए खुला छोड़ दें, फिर प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल में मिट्टी के साथ 40 किलो कम्पोस्ट, 2-3 किलो चूना (जहां चूने की कमी हो), 2-3 किलो सिंगल सुपर फास्फेट, 1 किलो मयूरियेट ऑफ़ पोटाश तथा 50 ग्राम थीमेट मिलाकर गड्ढों को भर दें। कुछ समय उपरांत इसमें पौधे लगा दें। पौधे आप किसी विश्वसनीय नर्सरी या रिसर्च संस्थान से ही खरीदें।

बागान की देखभाल
ध्यान रहे कि लीची के पौधे कोमल होते हैं इसलिए इसे जाड़े में पाले या गर्मी में तेज धूप से बचाएं। अगर पाला गिरने की संभावना हो तो बागान की सिंचाई कर दें। छोटे पौधे को गर्मी एवं धूप से बचाने के लिए पूरब दिशा को छोड़कर तीन ओर से सरकंडे, टाट या ताड़ के पत्ते लगा दें। इसके अलावा वर्षा के पानी का निकास रखें। जाड़े में 15-20 दिनों पर एवं गर्मी में 10 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें।

खाद एवं उर्वरक
प्राय: लीची के पौधे में 5-6 वर्षों में फूल लगने लगते हैं, लेकिन अच्छी फसल 9-10 वर्षों के बाद ही मिलती है। खाद देने का उपयुक्त समय वर्षा ऋतु का आरम्भ है। पौध रोपने के बाद प्रथम वर्ष खाद की मात्रा इस अनुसार डालें- कम्पोस्ट या सड़ी खाद 20 किलो, अरंडी की खली 1 किलो, नीम की खली ½ किलो, सिंगल सुपर फास्फेट ½ किलो, मयूरियेट ऑफ़ पोटाश 100 ग्राम। ये खाद हर वर्ष इसी अनुपात में 5 साल तक लगातार दें।

इसके अलावा ऐसी मिट्टी में जहां जस्ते की कमी होती है और पत्तियों का रंग काँसे का सा होने लगता है, उन पौधों पर 4 किलो जिंक सल्फेट तथा 2 किलो बुझे चूने का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

फूलते हुए पेड़ों में किये जाने वाले कार्य
लीची के बागान की वर्ष में तीन बार (वर्षा के आरम्भ, अंत तथा जनवरी) जुताई-कोड़ाई करें। जाड़े में सिंचाई न करें। लौंग के आकार के बराबर फल होने पर सिंचाई शुरू करें और गर्मी में हर 10-15 दिनों पर आवश्यकतानुसार पानी दें। पौधे में फूल लगते समय कदापि सिंचाई न करें। फल पकने लगें तो सिंचाई बंद कर दें। जब तक बागान में पूरी छाया न हो, तब तक अन्तर्वर्ती फसल उगा सकते हैं, परंतु फरवरी से मार्च तक सिंचाई वाली फसल न लगायें अन्यथा फूल एवं फल गिर जायेंगे। जून के अंत तक पौधों में खाद अवश्य डाल दें क्योंकि जून के बाद खाद देने से फलन कम होने की संभावना रहती है।

कटाई-छंटाई
साधारणत: लीची में किसी प्रकार की कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती है। फल तोड़ने समय लीची के गुच्छे के साथ टहनी का भाग भी तोड़ लिया जाता है। इस तरह इसकी हल्की कांट-छांट अपने आप हो जाती है। ऐसा करने से अगले साल शाखाओं की वृद्धि ठीक होती है और नयी शाखाओं में फूल-फल भी अच्छे लगते हैं। घनी, रोग एवं कीटग्रस्त, आपस में रगड़ खाने वाली, सूखी एवं अवांछित डालों की छंटाई करते रहें।

फलों का फटना
लीची की कुछ अगेती किस्मों- जैसे शाही, रोज सेंटेड, अर्ली बेदाना आदि में फल पकने के समय फट जाते हैं, जिससे इनका बाजार भाव कम हो जाता है। लीची की सफल खेती में फल फटने की समस्या अत्यंत घातक है। इसके लिए निम्न उपचार करें-
1. फल लगने के बाद पेड़ों के नजदीक नमी बनायें रखें।
2. जब फल लौंग के आकार के हो जाएं, तब नेफ्थेलीन एसीटिक नामक वृद्धि नियामक 20 पीपीएम घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें। इससे फल कम गिरेंगे एवं नहीं फटेंगे।

कीट एवं रोगों बचाव के उपाय
लीची माइट: इस सूक्ष्म कीट द्वारा रस चूसने पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं और उनकी निचली सतह पर लाल मखमली गद्दा बन जाता है। इस बीमारी से ग्रस्त पत्तियां गुच्छे बना लेती हैं।

उपाय: ग्रसित टहनियों को कुछ स्वस्थ हिस्सा के साथ जून एवं अगस्त माह में काटकर जला दें। डॉयकोफोल या केलथेन (18.5 ई.सी.) नामक दवा को 30 मिली लेकर 10 लीटर पानी में घोलें और प्रति पेड़ की दर से छिड़काव कर दें। अगर इस बीमारी का प्रकोप न हो, तब भी पेड़ों में इसका पहला छिड़काव मार्च-अप्रैल तक अवश्य कर दें।

धड़छेदक: लीची पेड़ के तना तथा शाखाओं के अंदर ये कीड़े रहते हैं और स्थान-स्थान पर छेद से इन्हें पहचाना जा सकता है।

उपाय: इन छेदों में लंबा तार डालकर कीड़ों को मार डालें। छेद के अंदर नुभान या भेपोना नामक दवा 0.2% घोल की 2-3 बूंदें छेद के अंदर डालें। तत्पश्चात छेद के मुंह को सीमेंट या गीली मिट्टी से बंद कर दें।
फल एवं पत्तीछेदक: यह कोमल पत्तियों की दोनों सतहों को बीच से खाता है एवं टहनियों में छेद कर देता है। फलस्वरूप कोमल टहनियां मुरझाकर लटक जाती हैं। पिल्लू निकलते ही फल में छेद कर देता है, जिससे कच्चा फल पेड़ से टूटकर नीचे गिर जाता है।

उपाय: सुंडी सहित टहनियों को तोड़कर जला दें। पेड़ में फूल लगने के पहले कीटनाशक ‘रोगार’ को 30 प्रतिशत या मोटासिस्ट्रोक्स 25 प्रतिशत घोल की 650 मिली दवा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

लीचेन: वृक्ष के तनों तथा शाखाओं पर सफेद या हरे रंग का काई जैसा लीचेन लगता है।

उपाय: जुलाई-अगस्त में एक बार कास्टिक सोडा का 1 प्रतिशत (1 लीटर पानी में 10 ग्राम) घोल बनाकर ग्रसित अंगों पर छिड़कें।

गमोसिस: विशेषकर बाढ़ के इलाकों में शाखाओं की छाल फटकर रस निकालती ,है जो बाद में काली गोद जैसा हो जाता है।

उपाय: ग्रसित स्थान के आसपास की छाल छीलकर हटा दें। कटे स्थान पर ब्लाइटांक्स का पेस्ट बनाकर लेप दें। बगीचे से पानी का निकास ठीक रखें।

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